गाड़गे महाराज सच्चे निष्काम कर्मयोगी थे। उनके कपड़े फटे-चिथड़े होते थे तथा एक लकड़ी, फटी-पुरानी चादर तथा मिट्टी का एक छोटा बर्तन यही उनकी संपत्ति थी। उनका बर्तन मिट्टी का होने के कारण ही लोगों ने उनका नाम 'गाड़गे' रखा।
सन् 1907 के पौष मास में अमरावती के समीपस्थ ऋषमोचन नामक ग्राम में बड़ा मेला लगा। तब हजारों दर्शनार्थी वहाँ एकत्रित हुए। मेले में लोग स्वच्छता का ख्याल नहीं करते, फलस्वरूप दोने-पत्तलों के कूड़े, रसोई के लिये प्रयोग किये गये मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े तथा हर प्रकार की गन्दगी जहाँ-तहाँ पड़ी थी, किन्तु लोगों का उस ओर बिलकुल ध्यान न था। पर युवा गाड़गे महाराज नदी की ऊँची कगार को काटकर स्नानार्थियों के लिए राह बनाने में जुट गये। इतना ही नहीं, हाथ में झाड़ ले वे अकेले गन्दगी की सफाई करने लगे। दर्शनार्थियों के मन में कौतूहल के साथ-साथ उनके प्रति आदरभाव जाग्रत हुआ, किन्तु किसी की भी इच्छा न हुई कि उनका साथ दे।
इतने में उनकी माता की दृष्टि उन पर पड़ी, तो उसने उन्हें घर लौट चलने को कहा। गाड़गे महाराज बोले, "माँ! अपने आसपास का मानव संसार ही भगवान् का प्रत्यक्ष रूप है। इन कोटि लोगों की यथाशक्ति सेवा करना ही ईश्वर की सच्ची आराधना हो सकती है। सुगन्धित फूल-पत्तों को पत्थर की मूर्ति पर चढ़ाने की अपेक्षा अपने आसपास विद्यमान चलती-फिरती दुनिया की सेवा तथा भूखों के लिये रोटी की व्यवस्था करने में ही जीवन की सार्थकता है। ऐसे फूल-पत्तों से तो हमारी झाडू श्रेष्ठ है, पर यह बात तुम्हारी समझ में नहीं आ सकती।"
और यह सुन माता का हृदय गद्गद हो उठा।