जब दुनिया के अनेक राष्ट्रों ने सत्ता, सैन्य और अर्थव्यवस्था के दम पर उपनिवेश बनाए, तब भारत ने एक अलग राह चुनी-आध्यात्मिक प्रभाव की राह। यहां के ऋषियों-मुनियों ने मानवता को आत्मबोध, ध्यान, और शांति का संदेश दिया। इस आध्यात्मिक धरोहर को 20वीं सदी में वैश्विक मंच तक पहुंचाने वाले एक महान योगी थे-परमहंस योगानंद। योगानंद न केवल भारतीय योग और ध्यान परंपरा के प्रचारक थे, बल्कि उन्होंने भारतीय संस्कृति की एक तरह की "आध्यात्मिक उपनिवेशिकता" की नींव भी रखी-जिसमें कोई जबरदस्ती नहीं थी, बस आत्मा की गहराइयों से निकला संदेश था जो सीधे विश्व-मानव के हृदय को छू गया।
सन् 1920 में परमहंस योगानंद अमेरिका के बोस्टन में आयोजित “अंतरराष्ट्रीय धार्मिक उदारवादियों की कांग्रेस” में भारत का प्रतिनिधित्व करने पहुंचे। यह उनकी पहली विदेश यात्रा थी, लेकिन इस यात्रा ने उन्हें एक वैश्विक आध्यात्मिक दूत बना दिया। उसी वर्ष उन्होंने अमेरिका में Self-Realization Fellowship (एसआरएफ) की स्थापना की, जो ध्यान और क्रिया योग के माध्यम से आत्म-साक्षात्कार की शिक्षा को प्रसारित करता है। पांच साल बाद, 1925 में लॉस एंजेलिस में एसआरएफ का अंतरराष्ट्रीय मुख्यालय स्थापित हुआ, जो आज भी योगानंद की शिक्षाओं का केंद्र बना हुआ है। पश्चिमी जगत, जो उस समय भौतिकता और औद्योगिकीकरण की ओर दौड़ रहा था, वहां भारतीय योग की यह सौम्य आहट एक नई चेतना का सूत्रपात थी।
योगानंद की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उन्होंने धर्म को किसी मत या पंथ के बंधन से परे रखा। उनका संदेश था-ईश्वर को महसूस करो, न कि केवल मानो। वे कहते थे कि ध्यान, प्राणायाम और आत्मचिंतन के माध्यम से हर इंसान ईश्वर का प्रत्यक्ष अनुभव कर सकता है। उनकी शिक्षाएं पूर्व के गहन अध्यात्म और पश्चिम की वैज्ञानिक सोच का अनूठा संगम थीं। उन्होंने क्रिया योग को एक वैज्ञानिक पद्धति की तरह प्रस्तुत किया, जो जीवन के हर क्षेत्र में शांति, संतुलन और जागरूकता ला सकती है। सन् 1946 में प्रकाशित योगानंद की आत्मकथा ‘Autobiography of a Yogi’ आज भी दुनिया भर में पढ़ी जाती है। यह न केवल उनके जीवन का दस्तावेज़ है, बल्कि भारतीय योग परंपरा का जीवंत वर्णन भी है। अब तक यह 50 से अधिक भाषाओं में अनूदित हो चुकी है और इसे आध्यात्मिक साहित्य की क्लासिक माना जाता है।
एप्पल के सह-संस्थापक स्टीव जॉब्स इस पुस्तक से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने अपने आईपैड में केवल यही एक किताब रखी थी, और अपनी मृत्यु से पहले इसे अपने निकट सहयोगियों को उपहारस्वरूप दिया था। योगानंद की एक अन्य उल्लेखनीय पुस्तक ‘The Second Coming of Christ’ है, जिसमें उन्होंने ईसा मसीह की शिक्षाओं को हिंदू योग दर्शन के परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित किया है। इस प्रयास ने आध्यात्मिक संवाद को वैश्विक आयाम दिया। योगानंद ने एक गहन प्रश्न उठाया था-“मनुष्य बाहरी दुनिया को जीतने में व्यस्त है, लेकिन क्या वह अपने भीतर की दुनिया से भी परिचित है?” आज की भागदौड़, तनाव और तकनीकी अशांति से जूझती दुनिया में यह सवाल पहले से अधिक प्रासंगिक हो गया है।
उनकी पुस्तक ‘How to Live’ की सात-खंडीय शृंखला जीवन में शांति, स्पष्टता और आत्म-संयम लाने के व्यावहारिक उपाय देती है। इनमें कार्य-जीवन संतुलन, आंतरिक ऊर्जा, सकारात्मक सोच, और ध्यान जैसे विषयों को अत्यंत सरल और प्रभावी भाषा में प्रस्तुत किया गया है। सन् 1952 में जब योगानंद ने अमेरिका में ही शरीर त्यागा, तो वे भले ही भौतिक रूप से नहीं रहे, लेकिन उनकी शिक्षाएं आज भी लाखों लोगों का मार्गदर्शन कर रही हैं। उनके द्वारा स्थापित संगठन एसआरएफ और भारत में स्थित Yogoda Satsanga Society (वाईएसएस) निरंतर सक्रिय हैं।इन संस्थानों के माध्यम से अब भी ध्यान शिविर, ऑनलाइन कोर्स, पुस्तकें और ऑडियो लेक्चर के ज़रिये लोगों तक योगानंद का संदेश पहुंच रहा है -“शांति तुम्हारे भीतर है, बाहर नहीं।”
परमहंस योगानंद केवल एक संन्यासी नहीं थे; वे भारत की सांस्कृतिक चेतना के ऐसे दूत थे, जिन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि संस्कृति की विजय तलवार से नहीं, आत्मा की शक्ति से होती है। उन्होंने अमेरिकी समाज में भारतीय योग, ध्यान और आत्मबोध की ऐसी गहरी जड़ें जमाईं, जो आज भी जीवंत हैं। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि भारत की असली शक्ति उसकी आध्यात्मिक परंपरा में है-वह परंपरा जो संकीर्णता नहीं सिखाती, बल्कि पूरे विश्व को एक परिवार मानकर चलती है। आज जब दुनिया मानसिक अशांति, अवसाद और अस्तित्व के संकट से जूझ रही है, परमहंस योगानंद की शिक्षाएं एक बार फिर प्रासंगिक हो उठी हैं। वे हमें याद दिलाते हैं कि सच्चा परिवर्तन भीतर से शुरू होता है और वही परिवर्तन संपूर्ण विश्व को भी बदल सकता है। (लेखक - डॉ. सुब्रत बांश)