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हिंदी साहित्य के अमर साधक: सुमित्रानंदन पंत

Date : 20-May-2025

हिन्दी साहित्य की अनमोल मणियों में से एक कवि सुमित्रानंदन पंत जी भी थे, जिन्होंने हिंदी साहित्य के लिए अपना अविस्मरणीय योगदान दिया। ‘प्रकृति के सुकुमार कवि’ कहे जाने वाले सुमित्रानंदन पंत का जन्म 20 मई 1900 को बागेश्वर ज़िले के कौसानी में हुआ था, जो कि आज के उत्तराखंड राज्य में स्थित है। जन्म के कुछ ही घंटों बाद उनकी माता का देहांत हो गया था, जिसके कारण उनका पालन-पोषण उनकी दादी ने किया। उनका बचपन का नाम गोसाईं दत्त था।

सुमित्रानंदन पंत जी ने प्रयाग में अपनी उच्च शिक्षा के दौरान वर्ष 1921 में हुए असहयोग आंदोलन में महात्मा गांधी के ब्रिटिश बहिष्कार के आह्वान का समर्थन किया। इस आंदोलन के चलते उन्होंने महाविद्यालय को छोड़ दिया और हिंदी, संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेज़ी भाषा-साहित्य का गहन स्वाध्याय करने लगे।

प्रयाग ही वह स्थान रहा जहाँ उनकी काव्य चेतना का विकास हुआ, यद्यपि पंत जी ने कविताएं लिखने की शुरुआत अपनी किशोरावस्था से ही कर दी थी। उनका रचनाकाल 1916 से 1977 तक रहा। पंत जी ने लगभग 60 वर्षों तक हिंदी साहित्य की सेवा की।

उनकी काव्य यात्रा को तीन प्रमुख चरणों में बाँटा जाता है। इन्हीं तीन चरणों में उनकी संपूर्ण काव्य चेतना और शैलीगत परिवर्तन की झलक मिलती है। पंत जी की कविताओं ने समाज को सदैव जागृत रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने हिन्दी साहित्य में अपनी रचनाओं के माध्यम से अत्यधिक यश अर्जित किया। 28 दिसंबर 1977 को उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में उनका निधन हो गया और वे सदा के लिए पंचतत्व में विलीन हो गए।

  1. हिंदी हमारे राष्ट्र की अभिव्यक्ति का सरलतम स्रोत है।

  2. जीना अपने ही में एक महान कर्म है।

  3. यदि स्वर्ग कहीं है पृथ्वी पर, तो वह नारी उर के भीतर;
    मादकता जग में अगर कहीं, वह नारी अधरों में डूबकर;
    यदि कहीं नरक है इस भू पर, तो वह भी नारी के अंदर।

  4. जीने का हो सदुपयोग, यह मनुष्य का धर्म है।

  5. प्रकृति से प्यार करना आपको सुखी जीवन की ओर ले जाता है।

  6. वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान;
    उमड़ कर आँखों से चुपचाप वहीं होगी कविता अनजान।

  7. ज्ञानी बनकर मत नीरस उपदेश दीजिए।
    लोक कर्म भाव सत्य प्रथम सत्कर्म कीजिए।

  8. वह सरल, विरल, काली रेखा तम के तागे सी जो हिल-डुल;
    चलती लघु पद पल-पल मिल-जुल।

  9. मैं मौन रहा,
    फिर सतह कहाँ
    बहती जाओ, बहती जाओ
    बहती जीवन धारा में
    शायद कभी लौट आओ तुम।

  10. मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोए थे,
    सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे।
    रुपयों का कलदार मधुर फसलें खनकेंगी
    फूल फलकर मैं मोटा सेठ बनूंगा।
    पर बंजर धरती में एक ना अंकूर…

सुमित्रानंदन पंत की कविताएं उनके समय के सामाजिक परिप्रेक्ष्य में स्वतंत्रता, शिक्षा और समाज में उनकी भूमिका को दर्शाती हैं। हिंदी साहित्य में उनके महान योगदान के कारण उन्हें 'प्रकृति के सुकुमार कवि' की उपाधि प्राप्त हुई। उनकी दो विशेष रचनाएं निम्नलिखित हैं:

सुमित्रानंदन पंत की कविताएं आपकी जीवनशैली में सकारात्मक बदलाव ला सकती हैं। उनकी कविताओं की इसी श्रृंखला में एक कविता “भारत माता” भी है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी भारत माता के प्रति समर्पण का संदेश देती आई है, और वर्तमान समय में भी राष्ट्रवाद की भावना को प्रज्वलित किए हुए है।

भारतमाता
ग्रामवासिनी।
खेतों में फैला है श्यामल
धूल भरा मैला सा आँचल,
गंगा यमुना में आँसू जल,
मिट्टी की प्रतिमा
उदासिनी।

दैन्य जड़ित अपलक नत चितवन,
अधरों में चिर नीरव रोदन,
युग युग के तम से विषण्णा मन,
वह अपने घर में
प्रवासिनी।

तीस कोटि संतान नग्न तन,
अर्ध क्षुधित, शोषित, निरस्र जन,
मूढ़, असभ्य, अशिक्षित, निर्धन,
नत मस्तक
तरु तल निवासिनी!

स्वर्ण शस्य पर-पदतल लुंठित,
धरती सा सहिष्णु मन कुंठित,
क्रंदन कंपित अधर मौन स्मित,
राहु ग्रसित
शरदेंदु हासिनी।

चिंतित भृकुटि क्षितिज तिमिरांकित,
नमित नयन नभ वाष्पाच्छादित,
आनन श्री छाया शशि उपमित,
ज्ञान मूढ़
गीता प्रकाशिनी!

सफल आज उसका तप संयम,
पिला अहिंसा स्तन्य सुधोपम,
हरती जन मन भय, भव तम भ्रम,
जग जननी
जीवन विकासिनी!

सुमित्रानंदन पंत की कविताएं मातृभूमि के प्रति आस्था और सम्मान का भाव लिए होती हैं। ऐसी ही एक कविता “ज्योति भारत” है, जो राष्ट्र चेतना को प्रखर करती है।

ज्योति भूमि,
जय भारत देश!
ज्योति चरण धर जहाँ सभ्यता
उतरी तेजोन्मेष!

समाधिस्थ सौंदर्य हिमालय,
श्वेत शांति आत्मानुभूति लय,
गंगा यमुना जल ज्योतिर्मय
हँसता जहाँ अशेष!

फूटे जहाँ ज्योति के निर्झर
ज्ञान भक्ति गीता वंशी स्वर,
पूर्ण काम जिस चेतन रज पर
लोटे हँस लोकेश!

रक्तस्नात मूर्छित धरती पर
बरसा अमृत ज्योति स्वर्णिम कर,
दिव्य चेतना का प्लावन भर
दो जग को आदेश!

 
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