हाल ही में आई फिल्म '12वीं फेल' भारतीय पुलिस सेवा के एक अधिकारी की जीवन-यात्रा को गहराई और सच्चाई के साथ प्रस्तुत करती है। इसकी कहानी न केवल प्रेरणादायक है, बल्कि बेहद यथार्थवादी भी है, जिसमें एक आम आदमी के संघर्षों, सपनों और उसकी मेहनत को बिना किसी दिखावे के दर्शाया गया है। यही कारण है कि यह फिल्म आज के युवाओं को गहराई से छू रही है।
लेकिन क्या हम कभी यह जानने की जिज्ञासा रखते हैं कि जिस सिविल सेवा परीक्षा को आज इतने युवा अपना सपना मानते हैं, उसकी शुरुआत कैसे हुई? और वह कौन थे, जिन्होंने पहली बार इस कठिन परीक्षा को पास करके भारतीय इतिहास में अपना नाम दर्ज कराया?
सत्येंद्रनाथ टैगोर वह पहले भारतीय थे जिन्होंने स्वतंत्रता से बहुत पहले, ब्रिटिश राज के दौरान, सिविल सेवा परीक्षा पास की। उस समय यह परीक्षा भारतीयों के लिए खुली नहीं थी। कई वर्षों तक उन्हें परीक्षा में बैठने की अनुमति ही नहीं थी।
17वीं सदी में जब अंग्रेज भारत में व्यापार के बहाने आए, तो धीरे-धीरे उन्होंने सत्ता पर कब्जा कर लिया। प्रशासन और उच्च पदों पर केवल अंग्रेजों का अधिकार था। 1832 में पहली बार भारतीयों को मुंसिफ और सदर अमीन जैसे छोटे न्यायिक पदों पर नियुक्त करने की अनुमति मिली। बाद में उन्हें डिप्टी मजिस्ट्रेट और कलेक्टर भी बनाया गया, लेकिन भारतीय सिविल सेवा परीक्षा में बैठने की अनुमति नहीं थी।
1861 में 'भारतीय सिविल सेवा अधिनियम' लागू हुआ और भारतीयों को परीक्षा में भाग लेने का अवसर मिला, परन्तु यह आसान नहीं था। परीक्षा केवल लंदन में होती थी, पाठ्यक्रम कठिन था, जिसमें ग्रीक और लैटिन जैसी भाषाएं भी शामिल थीं। आयु सीमा केवल 23 वर्ष थी, जिसे बाद में घटाकर 19 वर्ष कर दिया गया, जिससे प्रतिस्पर्धा और कठिन हो गई।
सत्येंद्रनाथ टैगोर का जन्म जून 1842 में हुआ था। वे बचपन से ही मेधावी छात्र रहे। उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रथम श्रेणी में प्रवेश प्राप्त कर अपनी प्रतिभा सिद्ध की। वे कलकत्ता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा देने वाले पहले बैच का हिस्सा भी थे। भारतीय सिविल सेवा परीक्षा की अनुमति मिलने के बाद उन्होंने अपने मित्र मोहन घोष के साथ इसे देने का निर्णय लिया। दोनों लंदन गए और परीक्षा दी। घोष सफल नहीं हो सके, लेकिन टैगोर 1863 में चयनित हुए। प्रशिक्षण पूर्ण कर वे 1864 में भारत लौटे और बॉम्बे प्रेसीडेंसी में उनकी नियुक्ति हुई। बाद में वे अहमदाबाद में सहायक कलेक्टर और मजिस्ट्रेट बने। उन्होंने करीब 30 वर्षों तक सेवा की और 1896 में सतारा, महाराष्ट्र से न्यायाधीश के पद से सेवानिवृत्त हुए।
सत्येंद्रनाथ टैगोर की उपलब्धियाँ केवल प्रशासन तक सीमित नहीं थीं। वे एक संवेदनशील कवि, लेखक और भाषाविद् भी थे। अंग्रेजी, बंगाली और संस्कृत पर उनकी अच्छी पकड़ थी। वे ब्रह्मो समाज आंदोलन से जुड़े और सामाजिक सुधारों में भी सक्रिय भागीदारी निभाई। उन्होंने बाल गंगाधर तिलक की ‘गीतारहस्य’ का बंगाली में अनुवाद किया और कई साहित्यिक कृतियाँ रचीं।
उनके जीवन का सबसे उल्लेखनीय पक्ष था महिलाओं के उत्थान के लिए उनका समर्पण। उन्होंने पर्दा प्रथा के विरुद्ध कार्य किया और महिलाओं को अधिक स्वतंत्र, शिक्षित और समाज में सक्रिय बनाने के लिए प्रयत्न किए। उन्होंने इस बदलाव की शुरुआत अपने ही परिवार से की, और इस तरह समाज के लिए एक मिसाल पेश की।
सत्येंद्रनाथ टैगोर का जीवन इस बात का प्रमाण है कि सच्ची लगन, शिक्षा और सामाजिक चेतना के साथ कोई भी व्यक्ति न केवल अपने लिए, बल्कि पूरे समाज के लिए बदलाव का वाहक बन सकता है।