"बुंदेले हरबोलों के मुंह, हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी..."
सुभद्रा कुमारी चौहान की ये अमर पंक्तियाँ आज भी झांसी की महारानी लक्ष्मीबाई के अद्वितीय साहस और देशभक्ति की जीवंत तस्वीर खींचती हैं। वे केवल इतिहास की वीरांगना नहीं थीं, बल्कि महिला सशक्तिकरण की साक्षात प्रेरणा हैं। मात्र 23 वर्ष की आयु में उन्होंने अंग्रेज़ी साम्राज्य को ललकारा और अपने राज्य की रक्षा में प्राणों की आहुति दी।
19 नवंबर को जन्मी लक्ष्मीबाई मराठा शासित झांसी की रानी और 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम की अग्रणी नायिका थीं। यह संग्राम भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध पहला संगठित विद्रोह था। लक्ष्मीबाई इस क्रांति का केन्द्रबिंदु बन गईं, जिन्होंने साहस और सैन्य कौशल से ब्रिटिश सेना को कड़ी चुनौती दी।
रानी ने अपने राज्य की रक्षा के लिए स्वयं सेना का पुनर्गठन किया, तोपों की सुदृढ़ व्यवस्था की और अनुभवी सैनिकों के नेतृत्व में मोर्चा संभाला। भवानीशंकर, कड़कबिजली जैसी तोपें किले की रक्षा में लगीं। जब अंग्रेज़ सेनापति सर ह्यूरोज ने 14 मार्च 1858 को झांसी पर चढ़ाई की, तो रानी ने दुर्ग की मजबूत किलाबंदी से आठ दिनों तक आक्रमण को विफल कर दिया।
23 मार्च 1858 को रानी के ही एक विश्वासघाती सरदार दूल्हा सिंह ने किले का दक्षिणी द्वार खोल दिया। अंग्रेज़ी सेना अंदर घुस आई और लूटपाट व हिंसा का तांडव मच गया। उस समय रानी लक्ष्मीबाई घोड़े पर सवार, पीठ पर अपने पुत्र दामोदर राव को बाँधे, तलवार लेकर रणचंडी का रूप लेकर लड़ीं।
झांसी की सेना अंग्रेजों की विशाल सेना के सामने छोटी पड़ने लगी। स्थिति गंभीर होते देख रानी अपने कुछ विश्वासपात्रों के साथ झांसी से कालपी की ओर रवाना हो गईं और वहाँ से विद्रोह जारी रखा। उन्होंने तात्या टोपे से मिलकर फिर से युद्ध की योजना बनाई।
लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे ने मिलकर ग्वालियर पर हमला किया। ग्वालियर के शासक शिन्दे अंग्रेजों के पक्ष में थे, लेकिन रानी की वीरता देखकर उनकी सेना विद्रोहियों से जा मिली। रानी ने नाना साहब को पेशवा घोषित किया और मराठा शक्ति को पुनः संगठित करने की कोशिश की।
परंतु अंग्रेज़ सेनापति ह्यूरोज ने ग्वालियर पर पुनः हमला किया और मुरार व कोटा की लड़ाइयों में रानी की सेना को पराजित किया।
18 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा की सराय में रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुईं। उनका बलिदान केवल एक योद्धा का अंत नहीं था, बल्कि यह स्वतंत्रता की उस ज्वाला की शुरुआत थी, जो अंततः अंग्रेजी हुकूमत के अंत का कारण बनी।
रानी लक्ष्मीबाई केवल युद्धभूमि की वीरांगना नहीं थीं, बल्कि वे महिला सशक्तिकरण की भी प्रेरणास्रोत हैं। उन्होंने नारी के सामर्थ्य, नेतृत्व क्षमता और राष्ट्रप्रेम का ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया, जो युगों-युगों तक स्मरण किया जाएगा।
उनकी गाथा आज भी देश के कोने-कोने में गूंजती है—कभी गीत बनकर, कभी कविता बनकर और कभी क्रांतिकारियों के हौसले बनकर।