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डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी: राष्ट्र की एकता के अमर प्रहरी

Date : 23-Jun-2025

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, भारत के सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और क्रांतिकारी विचारक थे। उनका जन्म 6 जुलाई 1901 को बंगाल के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। उनके पिता सर आशुतोष मुखर्जी देश के विख्यात शिक्षाविद् और बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। श्यामा प्रसाद जी की शिक्षा मुख्यतः कोलकाता में हुई। 1917 में उन्होंने मैट्रिक और 1921 में स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1923 में कानून की डिग्री लेकर वे इंग्लैंड गए और 1926 में बैरिस्टर बनकर भारत लौटे। अपने पिता की तरह उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में कम उम्र में ही उत्कृष्ट उपलब्धियाँ हासिल कीं। वे मात्र 33 वर्ष की आयु में कोलकाता विश्वविद्यालय के कुलपति बने और इस पद पर पहुँचने वाले भारत के सबसे कम उम्र के व्यक्ति बने। वे एक प्रखर वक्ता, गंभीर चिंतक और उच्च कोटि के शिक्षाविद् के रूप में देशभर में प्रसिद्ध हो गए।

उन दिनों बंगाल का वातावरण तेजी से बदल रहा था। एक ओर अंग्रेजों के संरक्षण में साम्प्रदायिक शक्तियाँ पनप रही थीं, तो दूसरी ओर स्वतंत्रता संग्राम तेज होता जा रहा था। ऐसे समय में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी चुप नहीं रह सके। उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता ली और स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया। वे चार वर्षों तक बंगाल विधानसभा के सदस्य भी रहे। हालांकि, वे मानते थे कि संघर्ष केवल अंग्रेजों से नहीं, बल्कि साम्प्रदायिक शक्तियों से भी होना चाहिए। इस विचारधारा के मतभेद के चलते उन्होंने कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने एक नया राजनैतिक मंच – प्रगतिशील गठबंधन – तैयार किया और विधायक बनकर वित्तमंत्री की भूमिका निभाई।

उसी समय वे विनायक दामोदर सावरकर के राष्ट्रवादी विचारों से प्रभावित हुए। उन्हें महसूस हुआ कि मुस्लिम लीग की साम्प्रदायिक राजनीति के विरुद्ध बुद्धिजीवियों को जागरूक और संगठित करना अनिवार्य है। इसी सोच के साथ वे हिन्दू महासभा में शामिल हो गए। मुस्लिम लीग ने बंगाल में भय और विघटन का माहौल बना दिया था। डॉ. मुखर्जी ने बंगाल को विभाजित करने के प्रयासों के विरुद्ध जनजागरण आरंभ कर दिया।

1942 में गांधीजी द्वारा भारत छोड़ो आंदोलन का आह्वान किया गया। यद्यपि वे कांग्रेस में नहीं थे, फिर भी उन्होंने इस आंदोलन में भाग लिया और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। रिहा होने के बाद वे पुनः बंगाल के विभाजन के खिलाफ अभियान में जुट गए। वे अपने भाषणों में यह समझाने का प्रयास करते थे कि भारत एक सांस्कृतिक राष्ट्र है, धर्म व्यक्ति का निजी विषय है, और धर्म के आधार पर देश का विभाजन अनुचित है। उनका मानना था कि यह विभाजन कुछ स्वार्थी तत्वों की सोच और अंग्रेजों की नीति का परिणाम है। वे दृढ़ता से मानते थे कि भारत के लोग सांस्कृतिक रूप से एकजुट हैं और हमारे बीच कोई वास्तविक अंतर नहीं है। लेकिन अंततः अंग्रेज जाते-जाते देश को विभाजित कर गए।

स्वतंत्रता के पश्चात जब पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में सरकार बनी, तो डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को मंत्रिमंडल में शामिल किया गया। किंतु वे जम्मू-कश्मीर को विशेषाधिकार देने वाली नीति के विरोधी थे। उन्होंने इस आधार पर मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया और कश्मीर में आंदोलन की घोषणा कर दी। वे जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानते थे और धारा 370 को राष्ट्र की एकता के लिए घातक समझते थे। संसद में उन्होंने धारा 370 को समाप्त करने की पुरज़ोर वकालत की।

उन्होंने संसद के बाहर एक देशव्यापी आंदोलन आरंभ किया और अगस्त 1952 में जम्मू-कश्मीर में एक विशाल जनसभा में यह संकल्प दोहराया कि वे या तो वहां भारतीय संविधान लागू करवाएंगे या इसके लिए अपना जीवन बलिदान कर देंगे। 1953 में वे कश्मीर की यात्रा पर निकले। उन्होंने नारा दिया—
"एक देश में दो निशान, दो विधान और दो प्रधान—नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगे!"
सरकार ने उन्हें कश्मीर में प्रवेश से रोका और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। 23 जून 1953 को जेल में रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई। इस घटना से पूरे देश में गहरा आक्रोश फैल गया। यद्यपि सरकार ने उनकी मृत्यु की जांच कराने से इनकार कर दिया, फिर भी देशभर में उठे जनमत और दबाव के कारण कश्मीर में प्रवेश के लिए लागू परमिट प्रणाली समाप्त कर दी गई।

इस प्रकार डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। उनका बलिदान भारतीय राष्ट्रवाद के इतिहास में एक अमिट अध्याय बन गया।

 
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