रानी दुर्गावती, गोंडवाना साम्राज्य की एक महान वीरांगना थीं, जिनका जन्म 5 अक्टूबर, 1524 को कलिंजर के राजा कीरत सिंह के यहाँ दुर्गाष्टमी के दिन हुआ था. उनकी वीरता, सौंदर्य और बुद्धिमत्ता से प्रभावित होकर, उनका विवाह गोंडवाना के राजा दलपतिशाह से 1542 में हुआ.
दलपतिशाह के निधन के बाद 1548 में, रानी दुर्गावती ने अपने पाँच वर्षीय पुत्र वीर नारायण की ओर से गोंडवाना साम्राज्य की बागडोर संभाली. उनके शासनकाल को गोंडवाना का स्वर्ण युग माना जाता है, क्योंकि इस दौरान साम्राज्य ने राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्रों में अभूतपूर्व प्रगति की. रानी दुर्गावती ने शिक्षा और महिला सशक्तिकरण पर विशेष जोर दिया. उन्होंने अपनी सेना में एक महिला दस्ता भी बनाया, जिसमें प्रशिक्षित महिलाएँ शामिल थीं. उनकी दूरदर्शिता और कुशल नेतृत्व में गोंडवाना साम्राज्य ने 80,000 गाँवों और 57 परगनों पर शासन किया.
16वीं शताब्दी के मध्य में, रानी दुर्गावती ने मुगल साम्राज्य के विस्तार का कड़ा विरोध किया. उन्होंने अकबर के सेनापति आसफ खान और मालवा के सुल्तान बाज बहादुर के खिलाफ कई लड़ाइयाँ लड़ीं और उनमें से सोलह युद्ध जीते. अपनी अंतिम मुठभेड़ में, मुगलों के साथ लड़ते हुए, रानी दुर्गावती गंभीर रूप से घायल हो गईं. दुश्मन के हाथों पड़ने के बजाय, उन्होंने स्वयं अपनी तलवार से खुद को मार लिया और 24 जून, 1564 को शहीद हो गईं.
रानी दुर्गावती की शहादत को याद करने के लिए, हर साल 24 जून को जबलपुर के बरेला के पास नरिया नाला में उनके स्मारक पर 'बलिदान दिवस' मनाया जाता है. भारत सरकार ने 24 जून 1988 को उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया था. जबलपुर में उनके नाम पर एक विश्वविद्यालय, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय भी है. रानी दुर्गावती का जीवन और बलिदान हमें स्वाभिमान और वीरता की प्रेरणा देता है.