दीनता, पलायन या समर्पण से लक्ष्य पूर्ति नहीं होती : एकाग्रता के साथ निर्णायक संघर्ष से होती है
Date : 11-Dec-2024
लेखक - रमेश शर्मा
सत बार जरासंध आगला, श्रीरंग बिमुहाटी कम दिघ बग,
मेलि घाट मारे मधुसूदन, असुर घाट नांखे अलख |
पारस हे करसां हाथणापुर, हटीयोन्नीयां पंडतां हाथ,
देख जाकर दुरजोधन कीधी, पाछै तक कीधी सजपाथ |
इकरा राम तणी तिय रावण, मंद हरेगो दह कमल,
टीकम सोहिज पत्थर तरिया, जननायक उपर जल |
एक राड भव माह अव्त्थी, असरस आणे केम उर,
मानवाधिकार दिवस 10 दिसंबर को पूरे विश्व में मनाया जाता है। यह हमें याद दिलाता है कि व्यक्ति को कुछ प्राकृतिक अधिकार जन्म से मिले हुए हैं , उन्हें प्राप्त करने के लिए उसे संघर्ष करते रहना चाहिए। विश्व के कई विकसित देश लोकतंत्र का मुखाैटा लगाकर जनता के अधिकारों को हनन करने से पीछे नहीं हैं। हाल ही दिनों में बांग्लादेश में कुछ संगठनों ने पूरे देश में विरोध कर लोकतांत्रिक सरकार को बेदखल कर दिया। इसके बाद बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिन्दुओं, ईसाई और सिखों पर लगातार बहुसंख्यक समाज हमला करके उनकी सम्पत्तियों पर कब्जा कर रहा है। विरोध करने पर उनको मौत के घाट उतारा जा रहा है। साथ ही उनकी बेटियों के साथ बलात्कार किया जा रहा है।
इस मामले को लेकर अमेरिकी विदेश विभाग की प्रवक्ता मार्गरेट मैक्लाउड ने कहा कि "अमेरिका, बांग्लादेश में एक स्वस्थ लोकतंत्र देखना चाहता है, वहां हर व्यक्ति के मानवाधिकारों की रक्षा होनी चाहिए।' बांग्लादेश से अभी जो खबरें आ रही हैं, वे चिंताजनक हैं, हम हालात पर नजर रख रहे हैं। हमें उम्मीद है कि बांग्लादेश में लोग अपने धर्म का पालन करते हुए मानवता का जीवन जी सकेंगे। अंतरराष्ट्रीय जगत में बांग्लादेश में हो रहे मानवाधिकारों के हनन को लेकर चिंता देखी जा सकती है। बहरहाल, सबसे पहले 1948 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा को अपनाया था। इसकी औपचारिक शुरुआत 1950 से हुई। इस दिन मानवाधिकार के क्षेत्र में संयुक्त राष्ट्र पुरस्कार और नोबल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया जाता है। मानवाधिकार शब्द का प्रयोग सबसे पहले 1940 श्रीमती इलेनोर रूजवेल्ट ने किया। उन्होंने पाया कि पूर्व में प्रयोग होने वाले शब्द ‘ मनुष्य का अधिकार ’ में कुछ लोग महिलाओं का अधिकार शामिल नहीं मानते। हालांकि, इस अवधारणा का अस्तित्व इसमें पहले भी रहा है।
प्राचीन काल में किसी न किसी रूप में इस अवधारणा ने अपना स्थान बना लिया। प्राचीन यूनान में अरस्तू का ‘ न्याय का सिद्धांत’ सामने आया, जिसके अनुसार बंटवारा अनुपातिक रूप में होना चाहिए। रोम में सिसरो ने जिस प्राकृतिक कानून सिद्धांत का उल्लेख किया, उसके अनुसार कानून प्रकृति ने स्थापित किया। सिसरो ने ‘ जूस ने चुराल’ का सिद्धांत दिया, जिसके अनुसार कानून को प्रकृति ने स्थापित किया है और कानून सब लोगों पर हर समय लागू है। प्राचीन काल में महाभारत के शांति पर्व में शासक के आचरण और राजत्व के सिद्धांत के बारे में कहा गया है। अर्थशास्त्र में प्रजा के कल्याण में राजा का कल्याण बताया गया है। सम्राट अशोक ने कलिंग अभिलेख में प्रजा को संतान की तरह माना और अधिकारियों को जनता पर अत्याचार नहीं करने की चेतावनी दी थी। राजनीतिक चिंतक जेएस मिल ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर जोर दिया। 1776 में अमेरिकी क्रांति के बाद स्वाधीनता की घोषणा की गई। इसमें कहा गया कि ‘ हमारे लिए यह स्वयं सिद्ध सत्य है कि सभी मनुष्य जन्म से समान हैं। ’
फ्रांस में 1789 में क्रांति हुई, जिसमें स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के नारे दिए गए। फ्रांस में संविधान बना, जिसमें मनुष्य के जन्मजात अधिकारों को मान्यता दी गई। अमेरिकन संविधान विश्व का प्रथम संविधान बना, जिसमें मानव अधिकारों को लिपिबद्ध किया गया और इनके संरक्षण की व्यवस्था की गई।
मानवाधिकारों की अनिवार्यता : मानवाधिकार सभ्य समाज की आधारशिला है। लोकतांत्रिक व्यवस्था के मजबूत होने के साथ-साथ इन अधिकारों को अधिक सम्मान देना अनिवार्य हो गया है। मानवाधिकारों की रक्षा और प्रवर्तन करना बहुत जरूरी है ताकि मानव की गरिमा को कायम रखा जा सके। मानवाधिकार व्यक्ति को जन्म से ही प्राप्त होते हैं और उसके सर्वांगीण विकास के लिए यह जरूरी है कि इनकी रक्षा की जानी चाहिए। ‘मानवाधिकार ’ मानव के जन्मसिद्ध अधिकार हैं और इन्हें मानव से अलग कर देने से व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास नहीं होगा। व्यक्ति का स्थान अन्य संस्थाओं से ऊंचा है इसलिए उसके अधिकारों की रक्षा को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। समाज, सरकार और अन्य संगठन तभी सफल माने जा सकते हैं जब वे व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा कर सकें। मानवाधिकारों की रक्षा इसलिए भी जरूरी है कि इनकी रक्षा से राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय सुरक्षा जुड़ी है। नाजी (जर्मनी), फासी (इटली) और कम्युनिष्ट सरकारों ने व्यक्ति के अधिकार की अवहेलना की, फलतः उन्हें जनता के विरोध और अन्य राष्ट्रों से युद्ध का सामना करना पड़ा और अंततः सरकारें नष्ट हो गई। कल्याणकारी राज्य सिद्धांत के अनुसार राज्य का पहला कर्त्तव्य है कि जनता के कल्याण और सुख की व्यवस्था करना। इसकी प्राप्ति के लिए मानवाधिकारों की रक्षा जरूरी है। आज के अन्तरराष्ट्रीयवाद के दौर में कोई भी देश इन अधिकारों को अनदेखा करके अपना अस्तित्व नहीं बचा सकता। संयुक्त राष्ट्र संघ के दबाव और अन्य राष्ट्रों के बहिष्कार के चलते प्रत्येक देश को इन अधिकारों को मान्यता देनी पड़ी है।
भारत में मानवाधिकार की स्थितिः भारत में दलितों को मानवाधिकार मिलना दूर की कोड़ी बनी हुई है। महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘ दलित सामाजिक स्तर पर वे काहिल हैं, आर्थिक स्तर पर वे गुलामों से भी बदतर हैं, धार्मिक स्तर पर उन्हें उन स्थलों में प्रवेश से रोका जाता है, जिन्हें हम ‘ईश्वर का घर ’ कहते हैं। देश को आजाद हुए आज 75 वसंत से अधिक गुजर गए, लेकिन आज भी दलित के साथ हर समय भेदभाव को शिकार होना पड़ रहा है। सामाजिक समरसता के अनेक लोक लुभावने नारे और दलित विमर्श के बाद भी भारतीय समाज अनेक जातियों, वर्गों और श्रेणियों के छोटे-छोटे दायरों में बंटा हुआ है। ये दायरे अक्सर एक-दूसरे के सामने आक्रामक मुद्रा में खड़े दिखाई देते हैं। इसलिए आज भी हम एक भारतीय समाज नहीं बना पाए हैं, कभी हम धर्मों में बंट जाते हैं और कभी हम वर्गों में और कभी हम जातियों में।
आज मानव जाति के सामने सबसे बड़ी चुनौती सम्मानपूर्वक जीवन यापन करने की है। पग-पग पर वह तिरस्कृत, असुरक्षित और उत्पीड़ित है। इनमें सर्वाधिक पीड़ित दलित हैं। अस्पृश्यता का बोलबाला होने से आज भी मंदिर, कुएं ,तालाब, स्कूल आदि के उपयोग करने पर इन्हें रोका और टोका जाता है। मैला ढोने जैसी घृणित प्रथा आज भी ग्रामीण अंचलों में देखी जा सकती है। दलितों को भूमि और अन्य सुविधाओं से वंचित रखा गया है। आजाद भारत में विकास के नए सोपान तय हुए, दलितों के लिए सामाजिक न्याय को प्राथमिकता दी गई लेकिन दलितों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ है, लेकिन सामाजिक स्थिति में ज्यादा सुधार दिखाई नहीं देता है। आए दिनों दलितों के घर जला दिए जाते है, दलित दूल्हे घोड़ी से उतार दिए जाते है , दलित महिलाओं को नग्न घुमाया जाने के समाचार अखबारों की सुर्खियों में आसानी से मिल जाते हैं। इसका यह प्रभाव देखने को मिल रहा है कि दलित बड़ी संख्या में धर्म परिवर्तन करके उस धर्म में अपना सम्मान पूर्व जीवन की तलाश पूरी करने का प्रयास कर रहे हैं। अन्य धर्म के लोग उनको समानता की बात कहकर उनको बरगला रहे हैं। बहरहाल, यही कहा जा सकता है कि मानवाधिकार व्यक्ति को सुखमय जीवन जीने का प्रमुख आधार है, इसके बिना जीवन बेमानी है...।
लेखक:- डॉ. लोकेश कुमार
हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सिटी ब्यूटीफुल चंडीगढ़ में तीन आपराधिक कानूनों को देश को समर्पित किया । इस दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने नए कानूनों के माध्यम से त्वरित न्याय की उम्मीद जताई, जो पूरी तरह से सार्थक भी है। भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, भारतीय न्याय संहिता, भारतीय साक्ष्य अधिनियम-जैसे तीन नए आपराधिक कानून हमारे समाज में गरीबों, वंचितों और कमजोर वर्ग के लोगोंं की सुरक्षा को सुनिश्चित करते हुए, संगठित अपराध, आतंकवाद और ऐसे अन्य अपराधों पर भी कड़ा प्रहार करते हैं। इन प्रयासों से हमें अपने कानूनी व्यवस्था को आजादी के अमृतकाल में अधिक प्रासंगिक और सहानुभूतिपूर्वक प्रेरित करने के लिए पुनर्भाषित करते हैं। इन कानूनों को मूर्त रूप देने में केन्द्रीय गृह एवं सहकारितामंत्री अमित शाह की भूमिका भी उल्लेखनीय रही है।कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी मोदी सरकार द्वारा लाए गए इन कानूनों का विरोध करते हैं और यह दलील देते हैं कि इससे देश में तानाशाह की प्रवृत्ति बढ़ेगी। लेकिन, मैं उनके इन दलीलों को पूरी तरह से हास्यास्पद मानता हूं। क्योंकि, यदि आप भारत में आपराधिक न्याय प्रणाली के इतिहास को देखें, तो पाएंगे कि पुराने कानून औपनिवेशिक न्यायशास्त्र की प्रतिकृति हैं, जिन्हें पूरे देश पर शासन करने के लिए बनाया गया था, न कि हमारे देश की नागरिकों की सेवा के लिए। इसी भाव-शून्यता के कारण ये कानून आमजनों के उत्पीड़न और शोषण का उपक्रम बन गए, जिनका उद्देश्य वास्तव में निर्दोषों के अधिकारों की रक्षा और दोषियों को दंडित करना होना चाहिए था। इस प्रकार प्रधानमंत्री मोदी द्वारा लाए गये नए कानून निश्चित रूप से उपनिवेशिक युग के कानूनों के अंत का प्रतीक हैं। सार्वजनिक सेवा और जनकल्याणकारी कानूनों से एक नए युग की शुरुआत हुई है। हमें याद रखना होगा कि न्याय में देरी केवल लोगों को हताश-निराश ही नहीं करती, बल्कि किसी न किसी स्तर पर देश के विकास की गति को भी बाधित करती है। इसके अतिरिक्त देश की छवि को भी खराब करने का काम करती है। जब समय पर न्याय नहीं मिलता तो कानून एवं व्यवस्था का आदर न करने और उसके उल्लंघन के आदी लोगों का दुस्साहस बढ़ता है। तीनों आपराधिक कानूनों पर अमल से एक ओर जहां 60 दिन के अंदर आरोप तय किए जाएंगे, वहीं दूसरी ओर सुनवाई पूरी होने के 45 दिन के अंदर फैसला सुनाना आवश्यक होगा।आंकड़े बताते हैं कि भारत के न्यायिक व्यवस्था में 3.5 करोड़ से भी अधिक लंबित मामले हैं और यहां विचाराधीन कैदियों की संख्या 77 फीसदी है, जो दोषियों की संख्या से तीन गुना अधिक है। वहीं, भ्रष्टाचार, अत्यधिक काम का बोझ और पुलिस की जवाबदेही तीव्र और पारदर्शी न्याय व्यवस्था को कायम करने की दिशा में एक बड़ी बाधा है। ऐसे में, मोदी विरोधी इस बात को समझें कि नियमों में बदलाव समय की मांग थी। सरकार के इन प्रयासों से निश्चित रूप से हमारे न्याय प्रणाली में अपेक्षित सुधारों को सुनिश्चित करते हुए, न्यायालयों को अधिक प्रभावी बनाने में मदद मिलेगी। देश में न्यायिक सुधार को बढ़ावा देने के लिए सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों द्वारा भी बारंबार आग्रह किया गया है। क्योंकि, आजादी के बाद न्यायालय की स्वतंत्रता को ध्यान में रखते हुए, ऐसे सुधारों को लागू नहीं किया जा सका है। लेकिन, मोदी सरकार ने हमें 10 वर्षों के दौरान हमें एक नई उम्मीद दी है।कानून के जानकार इस बात को अच्छी तरह से समझते हैं कि ‘न्याय में देरी न्याय से वंचित होने के समान है’ और भारतीय संदर्भ में यह बात पूरी तरह से चरितार्थ होती है। यह कोई छिपाने वाली बात नहीं है कि लंबित मामले और विचाराधीन कैदियों की अत्यधिक संख्या हमारे समाज में अन्याय की भावना को जन्म देता है। हमने अखबारों की सुर्खियों में ऐसा कई बार पढ़ा है कि किसी मामले में न्यायालय जब तक अपना फैसला सुनाता है कि आरोपित की मृत्यु हो चुकी होती है। वहीं, कई बार ऐसी स्थिति भी होती है, जब कोई आरोपी अपने आरोपों के दंड से अधिक समय जेल में बिता देते हैं। फिर, वर्षों तक जेल में रहने के बाद उन्हें न्यायालय से आरोप मुक्त कर दिया जाता है। ऐसी स्थिति न्याय की दृष्टि से अन्याय को जन्म देती है। इस स्थिति में त्वरित सुधार की दृष्टि से भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, भारतीय न्याय संहिता, भारतीय साक्ष्य अधिनियम जैसे नए कानून समय की अनिवार्यता हैं और हमें इन प्रयासों का स्वागत करना चाहिए। हालांकि, अभी बस केवल एक शुरुआत हुई है। हमें निकट भविष्य में अपने न्याय व्यवस्था की कार्य पद्धति के विविध पक्षों में सुधार पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है, जिनमें नियुक्तियां, स्थानांतरण व अवसंरचनात्मक विकास जैसे प्रमुख घटक हैं। इसके अलावा, भारतीय न्यायिक सेवा में भाषायी मुद्दों का भी एक विशेष ध्यान रखना होगा। जैसे कि यदि कोई कन्नड़ बोलने वाला व्यक्ति ओडिशा में न्यायाधीश का पदभार संभाला है, तो इससे वहां न्यायाधीशों और जनता के माध्यम से संचार में रुकावट पैदा होती है। इसलिए प्रयास यह होना चाहिए कि ऐसी नियुक्तियों के दौरान हमारी भाषायी और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखा जाए। साथ ही, हमें अपने न्याय व्यवस्था में सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल भी बेहद कुशलतापूर्वक करना होगा। इससे न्यायालय और न्यायाधीशों के अलग-अलग प्रदर्शनों को मूल्यांकन करना बेहद आसान हो जाएगा। हमें पूर्ण विश्वास है कि आने वाले कुछ वर्षों में हम इस दिशा में तेजी के साथ कार्य करेंगे और समाज में अधिकार और न्याय को स्थापित करने की दिशा में आने वाली हर एक बाधा को दूर करते हुए पूरे विश्व के सामने एक उदाहरण पेश करेंगे।
लेखक:- डॉ. विपिन कुमार